बरसात संग बचपन

Hindi Story.

बरसात का मौसम शुरू हो चुका  था और कई दिनों से लगातार रुक-रुक कर बारिश हो रही थी। मैं पिछले दो सप्ताह से अक्सर घर वापस लौटते वक्त भींग जाता, छाता तो हमेशा साथ में रखता था लेकिन साइकिल चलाते हुए छाता उपयोग करने पर पैंट तो भींग ही जाता। आज भी आसमान में काले-काले बादल मंडरा रहे थे, कुछ देर पहले ही जोरदार बारिश भी हुई थी और अभी बूंदा-बूंदी चल रही थी। बादलों को देख आगे भी अच्छी बारिश का अनुमान लगाया जा सकता था। मौसम कुछ खुशनुमा सा था, ना गर्मी ना ही ठंड। मैं खिड़की के पास खड़ा होकर बाहर के दृश्यों को देखने लगा। नालों से तेज रफ़्तार में गुजरने वाले पानी की आवाज, सड़कों पर पानी में खेल रहे बच्चे, बारिश में भींग चुकी गाय इन सब का नज़ारा अदभुत था। खासकर पानी में खेल रहे बच्चे, अपनी सारी चीजों को भूलकर अपनी मस्ती में लगे हुए थे। उनका इस तरह बेबजह हँसना, एक-दूसरों के ऊपर पैर से पानी उछालना मुझे अपने बचपन की यादों को ताजा करने के लिए काफी थे।  


Childhood


बात तब की हैं जब मैं चौथी कक्षा में था। मेरा स्कूल गाँव से 5 किलोमीटर दूर था। मैं साइकिल से आया जाया करता था। गाँव और स्कूल के बिच एक छोटी सी नदी गुजरती है। गाँव और स्कूल जाने के दो रास्ते थे। एक कच्ची और एक पक्की। मैं हमेशा पक्की सड़क से ही जाया करता था, वहाँ पुल बनाने का काम चल रहा था और फ़िलहाल के लिए ईंट के टुकड़े, मिट्टी और सीमेंट के पाइप का प्रयोग कर पैदल, साइकिल और चार पहिया वाहन के जाने के लिए रास्ते बनाए गए थे। बरसात के मौसम आने पर नदी में पानी बढ़ने लगा था। मेरा उस दिन स्कूल जाने का मन नहीं कर रहा था लेकिन घर पर कुछ कारण भी नहीं बता सकता था। मैं घर से स्कूल के लिए निकला और नदी के पास जाकर वापस घर आ गया। माँ ने पूछा की वापस क्यों आ गए ? मैंने उन्हें कहा की नदी में पानी ज्यादा हो गया है और पानी उस बनाए हुए रास्ते के ऊपर से बह रहा है इसलिए मैं वापस आ गया। माँ मान गई और बोली की अगले दिन दूसरे रास्ते (कच्ची सड़क) से जाना। मेरे तो मजे हो गए, मन ही मन खूब खुश हुआ और फिर तो दिन भर मस्ती करते रहे। 

दूसरे दिन तैयार होकर स्कूल के लिए निकल पड़े। माँ ने याद दिलाई की कच्ची सड़क से जाना है। मैं तो खुश था की क्या उल्लू बनाया मैंने माँ को। मैं तो पक्की सड़क से ही स्कूल के लिए निकल पड़ा क्योंकि मैंने पिछले दिन झूठ बोला था। जब मैं नदी के पास पहुँचा तो आँखे फटी की फटी रह गई। आज तो सच में पानी रास्ते के ऊपर से बह रहा था, कल तो मैं यही से वापस गया था तब तो सब ठीक था, पानी का स्तर भी कम था। अब क्या होगा ?अगर घर गए और सारी बातों के बारे में माँ को पता चला तो जबरदस्त धुलाई होने वाली थी। अगर अब वापस कच्चे रास्ते से जाते तो स्कूल पहुंचने तक स्कूल का गेट बंद हो चूका होता, और मैं वैसे भी लेट था। पिटाई से बचने का एक रास्ता नजर आया की साइकिल को उठा कर पानी को पार करते हैं क्योंकि कई लोग ऐसा कर रहे थे। लेकिन बिच में जाने पर पानी सीने के करीब पहुँच जाती थी और पानी का वेग भी काफी था। मैं ठहरा छोटा सा बच्चा, हिम्मत ना हो पाया। अगर घर न जाकर ऐसे ही खेतों में घूमने चले जाते और कोई देख लेता तो पापा से कुटाई परता। आखिरी में मैंने तय किया कि चलो आज माँ के हाँथो ही मार खाया जाए। घर वापस पहुँचा, माँ दूसरे दिन वापस आते देख आग बबूला हो गई। वो  आँखे लाल करते हुए पूछी आज क्या हो गया ?मैंने उनसे कहा की वो कच्ची सड़क के ऊपर से भी पानी बहने लगा है (जब नदी में पानी ज्यादा हो जाता तो अक्सर ऐसा होता था), और मुझे पानी में जाने से डर लगता है इसलिए मैं वापस आ गया। माँ की गुस्सा थोड़ा कम हुआ उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा सच-सच बताना, तुम आज भी पक्की सड़क से ही गए थे ना ?अगर मैं माँ को सब सच बताता तब पता नहीं क्या होता इससे अच्छा खामोशी ही बेहतर था। मैं सर झुकाकर, हाँ में अपना गर्दन हिला दिया था। धुलाई तो ना हुई पर डांट बहुत जबरदस्त पड़ी थी। खैर, जो भी हो स्कूल नहीं जाने का मजा ही कुछ और था। 

बरसात का महीना हमारे लिए काफी खास होते थे। पापा मजदूरों को लेकर धान रोपने जाते थे और हमें उनका शाम के वक्त वापस घर आने का इंतज़ार होता था। हमदोनों भाई बड़े ही बेसब्री से उनके आने का इंतज़ार करते थे। पापा को देखते ही हम खुश हो जाते, वो हमारे लिए केकड़ा पकड़ कर लाते थे। दादी 9-10 बजे सबके लिए खाना लेकर खेत जाती थीं, छुट्टी के दिनों में हमें भी साथ लेकर जाती। वो दिन तो हमारे लिए ईद हो जाते । दादी भी कभी-कभी केकड़ा पकड़ कर लाती हमारे लिए, पर पापा अक्सर लाते। कभी काफी सारे केकड़े होते तो कभी एक-दो ही। हम केकड़ों से डरते भी बहुत थे। शाम को पापा के आने से पहले ही माँ खाना बनाने लगती और और पापा के आने के बाद हम सब साथ मिल कर खाना खाते। उन केकड़ों को पकाकर चटनी या फिर सब्जी बनाया जाता, हम उन्हें बड़े ही मज़े से खाते थे। बरसात के मौसम में मजदूरों की जरुरत होता था और उन्हें मजदूरी और दोपहर का खाना दिया जाता था। इन सब का पहले से ही इंतजाम किया जाता था। माँ कददू को सहेज कर रखती और बरसात में जब मजदुर होते तो उनका सब्जी में उपयोग किया जाता था। 


मुझे खेतों में घूमना काफी अच्छा लगता, मैं घूमने और गन्ना खाने के बहाने यूँ ही निकल पड़ता शाम को। शाम के वक्त सूरज जब अपने अंतिम पथ पर हो, घर लौट रहे सारे पशु-पक्षी, गाय-भैस चराकर लौट रहे चरबाहे , अपने खेतों में काम करके वापस आ रहे किसान एक अदभुत दृश्य प्रस्तुत करता था और वह दृश्य किसी शहर में नकली सजावटों के बिच नहीं देखा जा सकता। हम जैसे-जैसे बड़े होने लगे पापा ने केकड़ा पकड़ना बंद कर दिया। बादलों ने भी जैसे रुख मोड़ लिया, पिछले कई सालों से कभी ऐसा नहीं हुआ जब धान की फसल अच्छी गयी हो। धीरे-धीरे सब कुछ बदलने लगे। बचपन की मौज-मस्ती पीछे छूट गई। हम सब अपने भविष्य के चिंता में लग गए, फिर जिंदगी ने एक रफ़्तार पकड़ी, आगे की पढाई के लिए माँ-पापा, दादी, दोस्त, रिश्ते, घर, खेत-खलिहान, गांव सब छूटा और बाद में अपने ही घर में हम मेहमान बनकर जाने लगे। 

By:- Vikas Vaibhav

1 comment: